Saturday, May 7, 2011

मैं कुछ कर नहीं कर सकता

ज़ब भी देखता हूँ आइने में हस्ती अपनी, धुन्धला और मजबूर चेहरा ही नजर आता है।

लुट के इस बाजार में , हर कोई चालबाज और मोहरा ही नजर आता है।

कुछ करने की उमंग है, बदलने का जज्बा है,

पर पग-पग भरते कदम काहते हर समय, मै कुछ नहीं कर सकता।

माँ के दामन पर रोज लगते हैं छींटे जहाँ ,

अपने ही बेंटे बाजार में करते सौदा वहीँ।

भुख से बिलखते बेटे को देखकर भी, जब बाप का दिल नहीं पसीजता,

उस समय चीख कर कहता है यह मन, मैं कुछ नहीं कर सकता।

भ्रष्टाचार और लाचारी बस यह दो लफ़्ज हैं फ़ैले,

कौए जब करते राज, और हँस भटकते खाते ढेले।

अपने ही पुत्र के यहाँ, माँ करती भिक्षा की कामना,

तब भी शिवाय तमाशा देखने के, मैं कुछ नहीं कर सकता।

हर पुस की रात मे जब बच्चा ठंड से सिकुड़ रहा होता है,

और बाप मदिरा पी, बिस्तर गरम कर रह होता है।

तब आँसू बहाती ,इस धरती माँ को देख,

बिलखता खुद से यही कहता हूँ, मैं कुछ नहीं कर सकता।

धरती का सीना चीड़ , जो करते अन्न की वर्र्र्षा,

पर अपना ही न पेंट भर पाते, मजबूर करने को आत्महत्या ।

जब एक किसान की तंग आँखों में, डूबते सुरज को देखता हूँ,

तड़प कर अशक निकल आते हैं , पर मैं कुछ नहीं कर सकता।

दिन रात लग कर जो आलीशान इमारत खड़ी करते,

अपने पसीने की बुँदो से, जो नीव को हैं सींचते।

जब रात एक खुलें आँसमा मे है बिताते ,

उस वक्त़ लगता है सोचने के अलावा , मैं कुछ नहीं कर सकता।

हिमालय की चोटियाँ , जिनके कदमों से मचलती है,

खूब ठंड मे भी जिनकी बुलंद भूजा नही झुकती है।

उनके ताबूतों को भी ये नेता चुरा ले जातें हैं,

तब सपनों की दूनिया मे डूबा , मैं कुछ नहीं कर सकता।

हर तरफ़ हर जगह , बिखर जाता हूँ ,

शांति की तलाश में , न जाने कहाँ भटक जाता हूँ ,

देख कर चेहरा अपने भाइयों का,

धधक कर रोता हूँ , आँशू बहता हूँ ।

और हर बार पूछता अपने आप से,

क्या सच मे , मैं कुछ कर नहीं कर सकता।



ऊपर से कोई देख मुझे, बोला क्या हो गया है तुझे,

सत्य और बुद्धि की ताकत भरी है तुझमें,

सामना कर सके तेरा , है नही साहस किसी में।

पहले तू खुद को तो है पहचान,

मन की शक्ति को तो जान।

उठ और कर साहस, क्यों जूल्मों को है देखता और सहता,

जब खडा साथ मैं तेरे, तब क्या कुछ तू नहीं कर सकता।